
इससे पहले महाराष्ट्र सरकार के जिला परिषद कानून का आर्टिकल 12 सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था. सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि आबादी के लिहाज से कुछ भाग आरक्षित किए गए हों तब भी आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं दिया जा सकता. सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी साफ निर्देश दिया था कि ओबीसी को 27 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता इसलिए इस संवैधानिक सीमा को ध्यान में रखते हुए ही जिला परिषद में चुनाव करवाए जाएं. ओबीसी समाज में रोष ना पैदा हो जाए, इस बात का ध्यान रखते हुए ठाकरे सरकार की ओर से पुनर्विचार याचिका दाखिल की गई थी. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने ठाकरे सरकार की पुनर्विचार याचिका को खारिज करते हुए अपने निर्णय को कायम रखा है.
क्या है पूरा मामला?
ओबीसी आरक्षण 27 प्रतिशत निश्चित किया गया है. इधर एसटी यानी अनुसूचित जनजाति की बात करें तो कुछ जिलों में इनकी संख्या 20 प्रतिशत है और आबादी के हिसाब से उन्हें 20 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है. अब एससी यानी अनुसूचित जाति की बात करें तो इनकी संख्या भी कुछ जिलों में 13 प्रतिशत है. इन्हें भी आबादी के हिसाब से 13 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है. अब अगर ओबीसी आरक्षण का 27 प्रतिशत और अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण का 20 और 13 प्रतिशत जोड़ दें तो आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन हो रहा है. इस पर आपत्ति जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण को पचास प्रतिशत की सीमा में रखने का निर्णय दिया था.
अब ओबीसी समाज की नाराजगी का डर
राज्य के धुले, नंदुरबार, नागपुर, अकोला, वाशिम, भंडारा, गोंदिया जैसे जिलापरिषदों में आरक्षण के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का असर ओबीसी वर्ग के लोगों पर पड़ सकता है. मराठा आरक्षण के मुद्दे पर पहले ही महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार की सरदर्दी बढ़ी हुई है. अब सर्वोच्च न्यायालय ने ठाकरे सरकार की पुनर्विचार याचिका को खारिज कर ओबीसी समाज की नाराजगी का नया सरदर्द राज्य सरकार को दे दिया है.